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2. राम-लक्ष्मण परशुराम संवाद (सूरदास के पद) | cbse class 10 Hindi Ram laxman parshuram samvad (tulsidas ke pad)

November 20, 2022 by Raja Shahin Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग सीबीएसई बोर्ड के हिन्‍दी के पद्य भाग के पाठ दो ‘तुलसीदास के पद (राम लक्ष्‍मण परशुराम संवाद) कक्षा 10 हिंदी’ (cbse class 10 Hindi Ram laxman parshuram samvad (tulsidas ke pad class 10)  के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगे। cbse class 10 Hindi Ram laxman parshuram samvad

cbse class 10 Hindi Ram laxman parshuram samvad

राम-लक्ष्मण परशुराम संवाद
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा!।
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई।।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा!।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।

अर्थ- परशुराम के गुस्सा को देखकर श्री राम बोलते है-हे नाथ। शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई दास ही होगा, क्या आज्ञा है। यह सुनकर मुनी गुस्सा होकर बोलते है सेवक वह होगा है जो सेवा करे। दुश्मन से तो लड़ाई ही होगी। हे राम सुनो जो भी शिवजी के धनुष को तोड़ा है वह मेरा दुश्मन (शत्रु) है जिस तरह सहस्त्र बाहु मेरा दुश्मन था वो कहते है जिसने भी धनुष तोड़ा है वह सामने आ जाए नहीं तो सभी राजा को मार दिया जाएगा।

सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने।।
बहु धनुही तोरी लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गझाई।।
येहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।
रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार।।

अर्थ- परशुराम के इस वचन को सुनकर लक्ष्मण जी मुस्कुराते हुए उनका अपमान करते हुए कहते हैं कि हमने बचपन से बहुत सी धनुहियाँ तोड़ डाली है ,लेकिन आपने ऐसा गुस्सा कभी नहीं किया आपका इसी धनुष पर इतनी ममता क्यों है ? यह सुनकर परशुराम जी क्रोधित (गुस्सा) होकर कहते है ओ रे राजपत्रु ,काल के वश में होकर भी तुम्हे बोलने कुछ होश है कि नहीं। सारे संसार मे विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुहीं के समान है।

लखन कहा हँसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छ अत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।।
बोले चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।

अर्थ- लक्ष्मणजी हँसकर कहते है हे देव। सुनिए हम तो जानते थे कि सभी धनुष तो एक ही जैसे है इसमे से पुराने धनुष को तोड़ने में क्या हानि लाभ। श्री रामचन्द्र जी ने तो इसे सिर्फ इसे उठाया लेकिन यह तो श्रीराम के छुते ही टुट गया इसमे इनका कोई दोष नहीं है । इसलिए  मुनी आप बिना कारण क्यों गुस्सा हो रहें है ? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखते हुए कहते है ओरे दुष्ट तुने स्वभाव नहीं देखा है ।

बालक बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।।
भजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।
सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।

अर्थ- मैं तुम्हे बालक समझकर नहीं मारता हुँ। ओरे मूर्ख। क्या तुम मेरा गुस्सा नहीं जनता हैं मै बाल ब्रह्राचारी और बहुत ही गुस्सा में हुँ/ बहुत गुस्सा वाला हुँ। मै तो क्षत्रियकुल का शत्रु हूँ मैनें अपने भुजाओ के बल पर सारे राजाओ को मार दिया था। मैनेज पृथ्वी के सारे राजाओ को मारकर ऋषियों यानी उसके बाद पृथ्वी पर ब्रहामणेां का राज हुआ करता था। मैने उसे भी मार डाला जिसके हजार बाँहे थी। मेरे पास जो फरसा है उसी फरसे से मैने सभी को मार डाला। हे राजकुमार तुम अपने माता-पिता के बारे में सोंचो वो इस दुःख को नहीं झेल पाऐंगे कि मेरा पुत्र मारा गया मेरा फरसा इतना भयानक है कि माँ के पेट में पल रहे बच्चा भी मर जाता है।

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन पूँकि पहारू।।
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं ।।
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी।।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।।

अर्थ- लक्ष्‍मणजी हँसकर बोलते हैं मुनी जी आप अपने आप को बहुत बड़ा योद्धा बता रहे हैं। हमे बार-बार अपना कुल्‍हारी दिखा रहे हैं। आप फूँक से पहाड़ को उड़ाना चाह रहे हैं। यहाँ पर कोई भी कुम्‍हड़े की फूल की बतिया नहीं है जो बिचली उंगली को देखकर मर जाता है।
मैं आपके धनुष, कटाल, कुल्हारी से नहीं डरता जो आप बार-बार इसे हमें दिखा रहे हैं। मैने आपका धनुषबान ये सब देखकर ही बोला है। आपको भृगवंशी समझकर और जनेउ धारण कर आपने किया है। इसलिए हमने अपने क्रोध को रोककर रखा है। हमारे वंश में सूर,असूर हरिजन और गायें पर वार नहीं करे। ऐसा करने पे हमारे कुल की बदनामी होती है।

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बधे पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।।

अर्थ- क्योंकि इन्हे मारने से पाप लगता है। और इनसे हार जाने पर ही भला है। अगर वो मारे भी, तो भी अपमान होगा। उनका एक-एक वचन ही कड़ो विशाल शक्तियों के समान है। धनुष-वाण तो आप बिना कारण ही पकड़ते है। और इन्हे देखकर मैने कुछ कह ही दिया तो क्या हुआ। कृप्या मझे महामुनी! माफ कर दीजीए। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुराम गुस्सा होने के साथ गंभीर वाणी में बोले।

कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु।।
भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुसु अबुधु असंकू।।
कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।

अर्थ- हे विश्वामित्र! सुनो, यह बच्चा को अकल नहीं है। ये अपने बुद्धी न होने के कारण अपने ऊपर काल को बुला रहा है यह अपने वंश का भी नाश करेगा। ये सुशंखी होते हुए चंदा में लगे दाग के समान है। यह बिल्कुल शरारती, मुर्ख और निडर है। यह  क्षण भर में मारा जाएगा हमसे, मैं पुकारकर कह देता हुँ कि ये इतना बोल रहा है तो मैं इसे क्षण भर में मार दुँगा तो मुझे दोष मत देना। अगर तुम इसे बचाना चाहते हो तो तुम इसको बताओ कि मेरा प्रताप, बल (शक्ति) और गुस्सा कितना है। लक्ष्मणजी बोलते है हे मुनि आपके अलावा आपके बारे में कोई बता नहीं सकता आपके यश को कोई और नहीं बता सकता आपके अलावा।

अपने मुह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।

अर्थ- परशुरामजी से लक्ष्मणजी कहते हैं आप अपने मुँह से अपनी हीं बड़ाई कर रहे हैं। बार-बार अपने कर्म अपनी करनी को बता रहे है। इतने पर भी आपको संतोष नही मिल पा रहा है तो आप और कहिए जितना भी कहना है वो कह डालिए। मैं आपका क्रोध को जान रहा हूँ। आप अपने क्रोध को मत रोकिए अपने अंदर ही अंदर मन में दुःख मत सहिए। आप विरता का व्रत धारण करते है। लेकिन आप किसी को माफ भी तो नहीं करते। आपको गाली देना शोभा नहीं देता है। शुरवीर को शुरता युद्ध के मैदान में शोभा देती है। आप शुरवीर है तो युद्ध के मैदान में जाइए और वहाँ वीरता दिखाइए। शत्रु को युद्ध के के मैदान में देखकर कायर ही अपना बखान करता है। मै आपसे युद्ध करने के लिए तैयार हुँ और आप अपना बखान करने के लिए तैयार है जब शत्रु सामने है तो लडाई करिए ये बात लखन जी बोलते हैं। शत्रु जब सामने हो तो युद्ध करिए लेकिन आप तो यहाँ बाते कर रहे हैं।

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोग।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब येहु मरनिहार भा साँचा।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साध।।

अर्थ- आप तो मानो बार बार काल को हाँककर मेरे पास बुला रहे है के आओ और उसके पिछे लगो लक्ष्मणजी के कठोर वचन को सुनकर परशुरामजी ने फरसे को सुधारकर अपने हाथ में ले लिया अब लोग मुझे दोष दे इस कड़वे बोलने वालक को अगर मैने मार दिया तो लोग मुझे दोष नही देना इस बच्चा को देखकर मैने बहुत बचाया मै बच्चा समझक इसे छोड़ता जा रहा हूँ लेकिन ये तो सचसुच मरने के लिए आ गया है विश्वामित्र जी कहते है अपराध क्षमा किजिए साधु लोग छोटे बच्चो के दोष और गुण यानी अच्छे काम और गलतियों को नहीं गिनतें। और साधु उसे राजा (दंड) नहीं देते है।

खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही।।
उतर देत छोडौं बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे।।
न त येहि काटि कुठार कठोरे। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे।।
गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।

अर्थ- परशुरामजी बोलते है तीखी धार का कुठार दिखाते हुए मैं दयारहित और क्रोधी यह गुरूद्रोही और अपराधी मेरे सामने जवाब दे रहा है। इतना सब करने पर भी मैं इसे बिना मारे ही छोड़ दे रहा हुँ। हे विश्रृमित्र सिर्फ तुम्हारे प्रेम (प्यारे) से, नही तो इसे इस कठोर (मजबुत) कुठार से काटकर थोड़े परिश्रम से गुरू से उक्रण हो जाता। फिर विश्रृमित्रजी हँसकर कहते है और क्षमा माँगते हैं। ये जो बच्चा है अब ये बेसमझ बच्चा है इसके कही बात से आप इतना गुस्सा मत होइए।

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।।
माता पितहि उरिन भये नीकें। गुररिनु रहा सोचु बड़ जी के।।
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा।।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।

अर्थ- लक्ष्मणजी कहते है, हे मुनी आपके प्रेम प्यार को सभी जानते है कौन नहीं जानता है ये तो दुनियाभर में मशहुर है। आप अपनी माता-पिता के सभी अच्छे कामो को करके उक्रण (उनके ऋण को चुका दिए है ) हो गए है। अब आपके पास गुरू का ऋण चुकाना बाकि है। जिसके बारे में आप सोंच रहे है वो आपके माथे पर चढ़ा हुआ है कि कैसे चुकाए। जैसे-जैसे दिन बढ़ रहा है वैसे-वैसे ब्याज भी बढ़त ही जा रहा है। अब आप हिसाब-किताब पर आ गए है। आप अभी हिसाब किजिए मै अभी थैली खोलकर दे देता हूँ। लक्ष्मणजी के कड़वे शब्द मे वचन सुनकर परशुरामजी अपने कुठार को संभाल लेते है। यह सुनकर सभा के सभी लोग हाय-हाय पुकारने लगते है।

भृगुबर परसु देखाबहु मोही। बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही।।
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े।।
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे।।
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।

अर्थ- लक्ष्मणजी कहते है-हे भृगुश्रेष्ट आप मुझे अपना फरसा (वार करने का सामान) दिखा रहे है पर हे राजाओं के दुश्मन। मैं आपको व्राह्ममण समझकर बचा रहा हूँ। आपको आजतक कभी भी कोई वीर नहीं मिला है। ब्रह्ममण देवता आप घर के बड़े होंगे। यह सुनकर सभी अनुचित है, कह कहकर सब लोग पुकारने लगते हैं। तब श्री रघुनाथजी इशारे से लक्ष्मणजी को रोक देते है। लक्ष्मणजी के जवाब से जो आहुति के तरह, परशुरामजी के गुस्सा के रूप में बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री रामचंद्रजी पानी के समान शांत करने वाले एक वचन बोले।cbse class 10 Hindi Ram laxman parshuram samvad

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