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5. ईर्ष्या, तु न गई मेरे मन से | Irshya tu na gayi mere man se class 10th Hindi

August 8, 2022 by Raja Shahin Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग उत्तर प्रदेश बोर्ड के हिन्‍दी के गद्य खण्‍ड के पाठ पाँँच ‘ईर्ष्या, तु न गई मेरे मन से’ (Irshya tu na gayi mere man se)  के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगे।

Irshya tu na gayi mere man se

5. ईर्ष्या, तु न गई मेरे मन से
लेखक- रामधारी सिंह ‘दिनकर‘

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ का जन्म 1908 में बिहार के मुंगेर जिला के ‘सिमरिया-घाट‘नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम रवि सिंह था। इनका जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था। इनके माता का नाम मनरूप देवी था। इन्होंने ‘मोकामा घाट‘ से मैट्रिक एवं पटना विश्वविद्यालय से बी.ए. की शिक्षा पूर्ण की।
दिनकर जी मिडिल कक्षा में पढ़ते हुए ‘बीरबाला‘ नामक काव्य की रचना की तथा मैट्रिक में पढ़ते हुए ‘प्रणभंग‘ काव्य की रचना की। जो प्रकाशित भी हो गया।
बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद मोकामा घाट हाई स्कुल में प्रधानाध्यापक का कार्य किया। 1950 में इन्हें हिन्दी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किए गए।
1952 में भारत के राष्ट्रपति इन्हें राज्यसभा के सदस्य मनोनित किए, जहाँ 1962 तक रहे। कुछ समय बाद ये भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किए गए।
राष्ट्रपति ने इन्हें 1959 में पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया। ‘संस्कृति के चार अध्याय‘ के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया तथा उर्वशी के लिए इन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार‘ से भी सम्मानित किया गया।
ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से‘ पाठ का सारांश
प्रस्तुत पाठ रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ के द्वारा लिखा गया है, यह एक निबंध है। इस पाठ में लेखक ने ईर्ष्या के कारणों और ईर्ष्या से बचने के उपायों का उल्लेख किया गया है।
लेखक के घर के दाहिने ओर एक वकील साहब का घर है। जिसका परिवार काफी धनी है। उनके घर-परिवार, पत्नी-बच्चे, नौकर-चाकर सब कुछ हैं। वे काफी सम्पन्न हैं, फिर भी वे सुखी नहीं है, क्योंकि उनके घर के पास ही एक बीमा एजेण्ट का घर है, जो उस वकील से ज्यादा सम्पन्न है। वकील अपनी धन-सम्पत्त‍ि से खुश नहीं है, उसे चिन्ता है कि बीमा एजेण्ट के जैसा मोटर-कार और मोटी मासिक आय उसकी भी होती।
जिस मनुष्य के दिल में ईर्ष्या (जलन) जगह बना लेती हे, वह अपनी चीजों से सुख औ लाभ नहीं उठाता, बल्कि दूसरोंके पास उपस्थित वस्तुओं को देखकर दुःखी होता रहता है। वह हर बात में दूसरों से अपनी तुलना करता है। उसके पास जो है, उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद देने के बजाय, इस चिन्ता में रहता है कि इससे अधिक उसे प्राप्त क्यों नहीं हुआ।
दिन-रात अपने कमी को सोचते-सोचते अपनी उन्नति के लिए परीश्रम न करके दूसरों को हानि पहुँचाने का कार्य करने लगता है।
लेखक कहते हैं कि निन्दा करना भी ईर्ष्या का ही एक रूप है। जो व्यक्ति ईर्ष्यालु होता है, वह दूसरों की निन्दा करके स्वयं उसका सम्मानित स्थान प्राप्त कर लेना चाहता है।
लेखक कहते हैं कि दूसरों को गिराकर कोई व्यक्ति स्वयं ऊँचा नहीं उठ सकता है। दुनिया में कोई भी व्यक्ति निंदा से नहीं गिरता है। उसके पतन का कारण उसके सदगुणों में कमी होना है। अपने चरित्र को स्वच्छ और अच्छे गुणों का विकास करके ही कोई व्यक्ति उन्नति कर सकता है।
वे कहते हैं कि जिसके हृदय में ईर्ष्या उत्पन्न हो जाती है, सबसे पहले उसे ही जलाती है। ईर्ष्यालु लोग हमेशा इस चिंता में डूबे रहते हैं कि कब कोई सुनने वाला मिले कि वह दूसरों की निंदा कर सके।
चिंता को लोग चिता भी कहते हैं। जिसको किसी बात की चिंता लग जाती है, उसका तो जीवन ही नष्ट हो जाता है।
लेखक कहते हैं कि जिसके हृदय में ईर्ष्या का उदय हो जाता है उसे सामने के सुख और आनंद धूमिल दिखने लगते हैं। फूलों का खिलना, पक्षियों का चहचहाना सब उसके लिए बेकार लगने लगता है।
लेखक ने ईर्ष्या और चिंता से श्रेष्ठ मृत्यु को ही बताया है।
लेखक कहते हैं कि कोई भी आदमी अपने आस-पास वालों से या लगभग समान पद, कार्य अैर सम्पिŸा वालों से ही ईर्ष्या करता है, क्योंकि एक भिखारी एक करोड़पति से ईर्ष्या नहीं कर सकता। प्रतिद्वन्द्वी से ईर्ष्या करना लाभदायक भी हो जाता है, क्योंकि उससे आप उन्नति भी कर सकते हैं और यह आपके लिए लाभदायक सिद्ध होगा।
लेखक कहते हैं कि कुछ लोग इस बात से परेशान रहते हैं कि मैंने किसी का कुछ गलत नहीं किया फिर भी वह व्यक्ति निंदा क्यों कर रहा है।
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का कहना है कि तुम्हारी निंदा वहीं करेगा, जिसकी तुमने भलाई की है।
ईर्ष्यालु से बचने के लिए नीत्से कहते हैं कि बाजार की इन मक्खीयों को छोड़कर एकान्त में भागना चाहिए। अर्थात हमें ईर्ष्यालु व्यक्ति से दूर रहना चाहिए। क्योंकि महान और अमर मूल्यों की रचना भीड़ में रहकर नहीं की जा सकती है।
लेखक ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन को बताया है। ईर्ष्यालु स्वभाग के आदमी को व्यर्थ की बातों को सोचने की आदत छोड़ देना चाहिए और यह पता लगा चाहिए कि जिस कमी के कारण वह ईर्ष्यालु बना है, उसकी पूर्ति का अच्छा तरिका क्या है। जब व्यक्ति में अपनी कमियों को देखने की भावना जाग जाएगी, उस दिन से वह ईर्ष्या करना छोड़ देगा।

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