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1. शुचिपर्यावरणम् (स्‍वच्‍छ पर्यावरण) पाठ का हिन्दी अर्थ | Shuchiparyavaranam Class 10

August 13, 2022 by Raja Shahin 1 Comment


प्रथम पाठ:

शुचिपर्यावरणम् (स्‍वच्‍छ पर्यावरण)

अयं पाठः आधुनिकसंस्कृतकवेः हरिदत्तशर्मणः “लसल्लतिका” इति रचनासङ्ग्रहात् सङ्कलितोऽस्ति। अत्र कविः महानगराणां यन्त्राधिक्येन प्रवर्धितप्रदूषणोपरि चिन्तितमनाः दृश्यते। सः कथयति यद् इदं लौहचक्रं शरीरस्य मनसश्च शोषकम् अस्ति। अस्मादेव वायुमण्डलं मलिनं भवति। कविः महानगरीयजीवनात् सुदूरं नदी-निर्झरं वृक्षसमूह लताकुञ्ज पक्षिकुलकलरवकूजितं वनप्रदेशं प्रति गमनाय अभिलषति।

अर्थ- यह पाठ आधुनिक संस्‍कृत कवि हरिदत्त शर्मा के रचना संग्रह “लसल्लतिका” से संकलित (लिया गया) है। यहाँ कवि ने महानगरों की यांत्रिक बहुलता यानी महानगरों में अधिक मशीनों के कारण बढ़ते प्रदुषण पर व्‍यक्‍त करते हैं। वह कहते हैं कि यह लौहचक्र शरीर और मन का शोषक है। इससे वायुमंडल दूषित (मलिन) हो गया है। कवि महानगरीय जीवन से दूर नदी, झरना, वृक्षों के समुह, लताकुंज (लताओं से छाया हुआ स्‍थान) और पक्षियों से गंजित वनप्रदेशों की ओर चलने की अभिलाषा व्‍यक्‍त करते हैं।

दुर्वहमत्र जीवितं जातं प्रकृतिरेव शरणम्।

शुचि-पर्यावरणम्॥

महानगरमध्ये चलदनिशं कालायसचक्रम्।

मनः शोषयत् तनूः पेषयद् भ्रमति सदा वक्रम्॥

दुर्दान्तैर्दशनैरमुना स्यान्नैव जनग्रसनम्। शुचि…॥1 ॥

अन्‍वय- अत्र जीवितं दुर्वहं जातम्, प्रकृतिः एव शरणम् । शुचिपर्यावरणम् (स्यात्)। महानगर मध्ये कालायसचक्रम् मनः शोषयत् अनिशं चलत्, तनुः पेषयत् वक्र सदा भ्रमति। अमुना दुर्दान्तैः दशनैः जनग्रसनं एव न स्यात् ।

भावार्थ- यहाँ जीवन कठिन हो गया है। प्रकृति ही शरण है। पर्यावरण शुद्ध होना चाहिए। महानगरों में चलता हुआ लोहे का पहिया मन को सुखाता हुआ, शरीर को पीसता हुआ, सदा टेढ़ा घूमता है। इस भयानक दाँतों से मानव का विनाश न हो जाए।

कज्जलमलिनं धूमं मुञ्चति शतशकटीयानम्।

वाष्पयानमाला संधावति वितरन्ती ध्वानम्॥

यानानां पङ्क्तयो ह्यनन्ताः कठिनं संसरणम्। शुचि…॥2॥

अन्‍वय- कज्जलमलिनं शतशकटीयानं धूमं मुंचति। वाष्पयानमाला ध्वानं सन्धावति वितरन्ती । यानानां अनन्ताः पंक्तयः, हि संसरणं कठिनम् ।

भावार्थ- सैकड़ों मोटरकार कागज-जैसा मलिन (काला) धुँआ छोड़ती है, कोलाहल (शोरगुल) करते हुए रेलगाड़ी पंक्ति पर दौड़ती है। गाड़ियों की अनंत पंक्तियों में चलना भी कठिन है।

वायुमण्डलं भृशं दूषितं न हि निर्मलं जलम्।

कुत्सितवस्तुमिश्रितं भक्ष्यं समलं धरातलम्॥

करणीयं बहिरन्तर्जगति तु बहु शुद्धीकरणम्। शुचि…॥3॥

अन्‍वय- भृशं वायुमण्डलं दूषितम् । निर्मलं जलं हि न (अस्ति)। भक्ष्य कुत्सितवस्तुमिश्रितम्। धरातलं समलं जातम्। बहिः अन्तः जगति बहु शुद्धीकरणं तु करणीयम् ।

भावार्थ- निश्‍चय ही वायुमंडल बहुत ही दूषित है, जल भी स्‍वच्‍छ नहीं है। खाने के पदार्थों में रसायन (बुरी चीजें मिली हुई है।) मिले हुए हैं। गंदगी से पृथ्‍वी भरी हुई है। संसार में भीतरी और बाहरी अत्‍यधिक शुद्धि करनी चाहिए।

कञ्चित् कालं नय मामस्मान्नगराद् बहुदूरम्।

प्रपश्यामि ग्रामान्ते निर्झर-नदी-पयःपूरम्॥

एकान्ते कान्तारे क्षणमपि मे स्यात् सञ्चरणम्। शुचि…॥4॥

अन्‍वय- माम् कंचित् कालं अस्मात् नगरात् बहुदूरं नय। (अहम्) ग्रामान्ते निर्झर-नदी-पयःपूरं प्रपश्यामि। एकान्ते कान्तारे क्षणम् अपि मे संचरणं स्यात्।

भावार्थ- कुछ समय के लिए मुझे इस नगर से बहुत दूर ले चलो। मैं गाँव की सीमा पर झरने, नदी और जल से भरे तालाब को देखता हूँ। पल भर के लिए एकांत जंगल में मेरा भ्रमण हो जाए।

हरिततरूणां ललितलतानां माला रमणीया।

कुसुमावलिः समीरचालिता स्यान्मे वरणीया॥

नवमालिका रसालं मिलिता रुचिरं संगमनम्। शुचि…॥5॥

अन्‍वय- हरित-तरूणां ललित-लतानां माला रमणीया, समीरचालिता कुसुमावलिः मे वरणीया स्यात् । नवमालिका रसालं मिलिता रुचिरं संगमनम् (स्यात्)।

भावार्थ- हरे-भरे वृक्षों और सुंदर लताओं की माला मन को मोहने वाली है। हवा से हिलती हुई फूलों की पंक्तियाँ मेरे लिए चुनने योग्‍य है। आम के पेड़ से नवमालिका का सुंदर संगम है।

अयि चल बन्धो! खगकुलकलरवगुञ्जितवनदेशम्।

पुर-कलरवसम्भ्रमितजनेभ्यो धृतसुखसन्देशम्॥

चाकचिक्यजालं नो कुर्याज्जीवितरसहरणम्। शुचि…॥6॥

अन्‍वय- अयि बन्धो! खगकुल–कलरव-गुंजित-वनदेशं चल । पुर–कलरव-सम्भ्रमित जनेभ्यः धृत-सुखसन्देशम्। चाकचिक्य-जालं जीवित-रसहरणम् नो कुर्यात्।

भावार्थ- अरे बंधुओं (भाईयों) ! पक्षियों की समूह की आवाज से गुंजित वन प्रदेश में चलों। शहर के शोरगुल से भ्रमित लोगों के लिए सुख-संदेश को धारण करो। चकाचौंध भरी दुनिया को जीवन के आनन्‍द (रस) को चुराना नहीं चाहिए।

प्रस्तरतले लतातरुगुल्मा नो भवन्तु पिष्टाः।

पाषाणी सभ्यता निसर्गे स्यान्न समाविष्टा॥

मानवाय जीवनं कामये नो जीवन्मरणम्। शुचि…॥7॥

अन्‍वय- प्रस्तरतले लता-तरु–गुल्माः पिष्टाः न भवन्तु। पाषाणी सभ्यता निसर्गे समाविष्टा न स्यात्। मानवाय जीवनं कामये। मरणं जीवन नो कामये ।

भावार्थ- लता, पेड़ और झाड़ी को पत्‍थरों के नीचे न पीसे। पाषाणी सभ्‍यता (पत्‍थर युग) प्रकृति में समावेश न हो। मानव के लिए जीवन का कामना करता हूँ। जीवित रहते हुए मैं मृत्‍यु का कामना नहीं करता हूँ।

Filed Under: CBSE Class 10th Sanskrit

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Comments

  1. Praveen says

    July 12, 2023 at 6:04 pm

    Thanks

    Reply

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