इस पोस्ट में हमलोग उत्तर प्रदेश बोर्ड के हिन्दी के गद्य खण्ड के पाठ तीन ‘क्या लिखूँ ?’ (Kya Likhu up board class 10 Hindi) के व्याख्या को पढ़ेंगे।
3. क्या लिखूँ ?
लेखक- श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी द्विवेदी युग के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इनका जन्म 1894 में छत्तीसगढ़ क्षेत्र के खैरागढ़ नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम उमराव बख्शी था। इनका पालन-पोषण एक साहित्यिक परिवार में हुआ था। इन्होंने ‘सरस्वति‘ पत्रिका का संपादन भी किया था। यह कुछ दिनों तक ‘छाया‘ मासिक पत्रिका का संपादन भी किया था। इनकी मृत्यु 1971 में हो गई।
3. क्या लिखूँ ? पाठ का सारांश
प्रस्तुत पाठ ‘क्या लिखूँ ?‘ एक निबंध है, जिसे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के द्वारा लिखा गया है, इस पाठ में लेखक ने लिखने की कला और विशेष मानसिक स्थिति का वर्णन किया है।
अंग्रेजी के लेखक ए.जी.गार्डिनर के अनुसार, लेखन कार्य एक विशेष मानसिक स्थिति में ही किया जा सकता है। उस समय मन में कुछ ऐसी उमंगें और आवेग उत्पन्न होते हैं कि लेखक को लिखना ही पड़ता है। उस समय उसे विषय के बारे में सोचने की चिन्ता भी नहीं होती है, चाहे कोई भी विषय हो। वह अपनी सारी मनोभावों को उसी में भर देता है। अर्थात जब लेखक का मन करने लगता है, तो उसे ज्यादा दिमाग नहीं लगानी पड़ती है कुछ भी लिखने के लिए। उसका मन का भाव सबकुछ लिखवा देता है।
लेखक कहते हैं कि मेरे मन में न तो ऐसे भाव स्वयं उत्पन्न हुए और न ही उन्होंने कभी एसी स्थिति का अनुभव किया। उन्हें तो लिखने के लिए मेहनत के साथ चितंन और मनन करना पड़ता है।
लेखक को जब ‘समाज सुधार‘ और ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं‘ पर निबंध लिखने के लिए कहा गया, तो वह विद्वानों और निबंधशास्त्रों के निबंध ढुंढने लगे। लेखक के साथ कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि जब भाव स्वयं उमड़ पड़े हो।
लेखक कहते हैं कि बड़े निबंधों की तुलना में छोटे निबंध सुदंर और अधिक श्रेष्ठ होते हैं। लेखक के अनुसार आदर्श निबंध छोटा होता है।
विद्वानों का कहना है कि निबंध लिखने से पहले उसकी रूप-रेखा तैयार कर लेनी चाहिए। किन्तु लेखक जब निबंध लिखते हैं तो वह रूप-रेखा सोच नहीं पा रहे थे। ए.जी. गार्डिनर को और शेक्सपीयर को निबंध लिखकर उसका शीषर्क ढूँढने में कठिनाई होती थी।
लेखक कहते हैं कि निबंध में भाषा का प्रवाह होना चाहिए, वाक्य छोटे-छोटे और एक-दूसरे से संबंद्ध होना चाहिए।
लेखक कहते हैं कि अंग्रजी निबंधकार जो कुछ सुनते हैं, देखते हैं और अनुभव करते हैं उसे अपने निबंध में लिख देते हैं। उनकी निबंध में न ज्ञान की गरिमा होती है और न ही कल्पना का महत्व होता है। इसलिए लेखक इसे अच्छा नहीं मानते हैं।
लेखक कहते हैं कि ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं‘ यह इसलिए सही है, क्योंकि कहीं दूर ढोल बज रहा होता है, तो उनकी कर्कशता दूर तक सुनाई नहीं देती है। दूर बैठे व्यक्ति को वह स्वर मधुर सुनाई पड़ती है। दूसरी ओर एक व्यक्ति पास बैठा है, उसके कान का पर्दा फट रहा है। फिर वह विवाह उत्सव का आनंद लेता है तथा नववधु के प्रेम और उल्लास में खोया रहता है, जिससे पास के ध्वनि भी मधुर प्रतीत होने लगती है, लेकिन दूर बैठा हुआ व्यक्ति उस आवाज को सुनकर विवाह उत्सव की सुंदर कल्पना में खो जाता है। उसके साथ आनन्द का कोलाहल, उत्सव, खुशी और प्रेम के गीत मिले होते हैं, इसलिए दूर और पास बैठे व्यक्ति को ढोल का स्वर कठोर नहीं लगता है।
जो युवा होते हैं, वे हमेशा भविष्य की कल्पनाओं में खाए रहते हैं और क्रांति के समर्थक होते हैं। इसलिए भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं। दूसरी ओर वृद्ध वर्तमान से कभी खुश नहीं होते हैं, उन्हें अपना अतीत ही सुंदर लगता है। वे अपने अतीत को ही वर्तमान में लाना चाहते हैं।
इसलिए समय-समय पर सुधार आंदोलन चलाए जाते हैं और वर्तमान हमेशा सुधारों का काल बना रहता है।
आज के युवा साहित्यकार वर्तमान में भूत और भविष्य की गौरव का वर्णन करते हैं, परन्तु कुछ समय बाद जब वह वृद्ध हो जाते हैं, तो उनकी समझ कमजोर और दर्बल हो जाती है। वह वृद्ध होकर अतीत के गौरव का सपना देखने लगते हैं। फिर युवाओं का नया दल सुनहरे भविष्य का सपना देखने लगता है, क्योंकि कहा गया है कि ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं।‘
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