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Raja Shahin

6. Ajanta Up Board Class 10 Hindi | अजन्‍ता कक्षा 10 हिंदी गद्य खण्‍ड

August 8, 2022 by Raja Shahin Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग उत्तर प्रदेश बोर्ड के हिन्‍दी के गद्य खण्‍ड के पाठ छ: ‘अजन्‍ता कक्षा 10 हिंदी गद्य खण्‍ड’ (Ajanta Up Board Class 10 Hindi)  के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगे।

Ajanta Up Board Class 10 Hindi

6. अजन्ता
लेखक- डॉ. भगवतशरण उपाध्याय

डॉ. भगवतशरण उपाध्याय का जन्म 1910 में बलिया जिले के उजियारपुर गाँव में हुआ था। इन्होनें अपनी शिक्षा पुरी करने के साथ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रचिन इतिहास विषय में एम. ए. किया। इन्हें संस्कृत-साहित्य तथा पुरातन का ज्ञान था। साथ ही साथ यूरोपीय भाषाओं का अध्ययन करते हुए हिन्दी साहित्य को उन्नति के पथ पर अग्रसर कराने में खास योगदान दिया।
इन्होने पुरातन विभाग, प्रयाग संग्रहालय, लखनऊ संग्रहालय के अध्यक्ष तथा पिलानी में बिड़ला महाविद्यालय में प्राध्यापक पद पर काम किया। इसके बाद विक्रम विश्वविद्यालय में पुराने इतिहास विभाग में प्रोफेसर पद को पाया था। इनकी मृत्यु सन् 1962 में हुआ। यह संस्‍कृत और पुरातत्त्व के बहुत बड़े जानकार थे।

6.  अजन्‍ता पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ डॉ. भगवतशरण उपाध्याय के द्वारा लिखा गया है, जिसमें उन्होंने अजन्ता की कला को भारत की अम़ूल्य विरासत के रूप में चित्रित किया है।
अपने जीवन को अमर बनाने के लिए मानव ने बहुत सारे प्रयास किए। लेकिन फिर भी वह जीवन को अमर नहीं बना सकें। अपनी सफलता को अगले आने वाली पिढी को बताने के लिए उपाय सोंचा।
बड़े-बड़े पहाड़ो, चट्टानों, ऊँचे-ऊँचे पत्थरों के खंभे, ताँबे और पितल के पत्थरों पर खुदे सुन्दर अक्षर, सुन्दर उपदेश, उनके जीवन-मरण की कहानीयों को लिखवाएँ थे। जो आज भी हमारी मुल्य विरासत बन गई है।
पहाड़ों को काटकर मंदिर स्थापना करने की कला लगभग सवा दो हजार वर्ष पहले हीं हो गया था। अजन्ता की गुफाएँ इन्हीं पुरानी गुफाओं में से एक हैं।
गुफा वाली मंदिरों में से सबसे प्रसिद्ध अजन्ता की गुफाएँ हैं।, जिनकी छतों और दिवारों पर भारतीय संस्कृति‍ के उत्कृष्ट कोटि के चित्र खोदकर बनाए गए हैं। इस कला को विदेशियों तथा श्रीलंका और चीन ने भी नकल करके अपने यहां चित्र बनाए।
अजन्ता के चित्र जो छेनी, हथौड़ी से खोद-खोद कर बहुत हीं सुन्दर आकृति में बनाया गया है और चित्रकार उसमें सुंदर रंग भरते गए। मुम्बई और हैदराबाद के मध्य विध्यांचल के पूर्व-पश्चिम की ओर चलती हुई पर्वतमलाओं के नीचे वाले भाग पर सह्याद्रि पहाड़ी पर अजन्ता के गुफाएँ तथा मंदिर स्थित हैं।
अर्द्धचन्द्राकर पर्वत जो अजन्ता गाँव में है। वह हरे वनों से भरे ठोस पर्वतों को काटकर बने खाली जगह पर सुंदर घर, मंदिर, बरामदे और हॉल का निर्माण पूर्वजों के द्वारा किया गया है। अंदर खंभो और दिवारों पर सुंदर मूर्तियों का निर्माण किया गया है। अंदर छतों और दिवारों को रगड़कर चिकनी बना दी गई और तब उसमें मानों जैसे चित्रों की दुनिया बसा दी गई है और उसमें सुंदर रंग चित्रकारों द्वारा भरकर मानों जैसे उसमें प्राण ही फूँक दिया गया हो।
दिवारों पर अनेक कहानियाँ चित्रित है जैसेः- बंदर की कहानी, हाथियों की कहानी, हिरणों की कहानी, भय, त्याग, दया और क्रूरता की कहानी आदि। एक तरफ पाप और बेरहमी दिखाई गई है तो एक तरफ क्षमा और दया।
उन दिवारों पर महात्मा बुद्ध के जीवन से जुड़े सभी कथाओं जन्म से लेकर मृत्यु तक सारी घटनाएँ इस तरह दर्शाया गया है कि कोई भी दर्शक उसे देखकर मन्त्रमुग्ध से हो जातें हैं। इन्हीं चित्रों में बुद्ध एक हाथ में कमल लिए खड़े है जिसमें बहुत सारी आँखों की चमक एवं ललित सौंदर्य दर्शनीय है। भगवान बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण के समय गौतम बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के निमित्त घर त्यागकर जाते हुए दिखाई दे रहे हैं और बुद्ध के पत्नि यशोधरा एवं उनका पुत्र राहुल निद्रा की अवस्था में निमग्न है।
गौतम बुद्ध के यह चित्र अत्यंत जीवन्त है, जिसमें बुद्ध का अपनी पत्नी एवं पुत्र से वियोग के समय उनका हृदय धड़क रहा हो, लेकिन वे अपने हृदय पर नियंत्रण रख चुके हैं। लेखक एक अन्य चित्र के माध्यम से भगवान बुद्ध के शिक्षा माँगने का वर्णन करते हुए कहतें हैं कि गौतम बुद्ध के साथ उनका भाई नंद खड़ा है जिसे खुद उनकी पत्नि गौतम बुद्ध के पास भेजी थी। उसने उसको वापस लेकर आने के लिए भेजा था। क्योंकि सुंदरी ने गौतम बुद्ध को बिना ज्ञान दिए वापस कर दिया था। वे बार-बार वहाँ जाते थे लेकिन उन्हें संघ से वापस बुला लिया जाता था।
दूसरी तरफ बंदरों को गजराज कमलनाकल तोड़कर हथिनियों को दे रहा है। खाने-खिलाने, बसने-बसाने, नाचने, गाने , ऊँच-नीच, धनी-निर्धन आदि को जितने हो सके। वे सब अजन्ता के दिवारों पर चित्रित किया हुआ है। बुद्ध के जन्म से पहले की भी गथाएँ इसमें दर्शाया गया है। पिछले जन्म की कथाएँ जातक कहलाती है। इनकी संख्या 555 है। उनका संग्रह जातक नाम से प्रसिद्ध है जिसमें बुद्ध पिछले जन्म में गज, बंदर, मृग आदि रूपों में पैदा हुए थे।
अजन्ता का संसार चित्रकालाओं में अलौकिक स्थान है। ये ईशा के करीब दो सौ साल पहले ही बनना शुरू हो गया था और सातवीं सदी तक बनकर तैयार भी हो गया। एक दो गुफाओं में लगभग दो हजार साल पुराने चित्र भी सुरक्षित हैं। इतनी अधिक संख्या में ऐये चित्र कहीं देखने को नहीं मिलते। लेकिन अजन्ता के चित्रों को देश विदेश में भी सम्मान प्राप्त है। Chapter 6 Ajanta Up Board Class 10 Hindi

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5. ईर्ष्या, तु न गई मेरे मन से | Irshya tu na gayi mere man se class 10th Hindi

August 8, 2022 by Raja Shahin Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग उत्तर प्रदेश बोर्ड के हिन्‍दी के गद्य खण्‍ड के पाठ पाँँच ‘ईर्ष्या, तु न गई मेरे मन से’ (Irshya tu na gayi mere man se)  के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगे।

Irshya tu na gayi mere man se

5. ईर्ष्या, तु न गई मेरे मन से
लेखक- रामधारी सिंह ‘दिनकर‘

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ का जन्म 1908 में बिहार के मुंगेर जिला के ‘सिमरिया-घाट‘नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम रवि सिंह था। इनका जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था। इनके माता का नाम मनरूप देवी था। इन्होंने ‘मोकामा घाट‘ से मैट्रिक एवं पटना विश्वविद्यालय से बी.ए. की शिक्षा पूर्ण की।
दिनकर जी मिडिल कक्षा में पढ़ते हुए ‘बीरबाला‘ नामक काव्य की रचना की तथा मैट्रिक में पढ़ते हुए ‘प्रणभंग‘ काव्य की रचना की। जो प्रकाशित भी हो गया।
बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद मोकामा घाट हाई स्कुल में प्रधानाध्यापक का कार्य किया। 1950 में इन्हें हिन्दी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किए गए।
1952 में भारत के राष्ट्रपति इन्हें राज्यसभा के सदस्य मनोनित किए, जहाँ 1962 तक रहे। कुछ समय बाद ये भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किए गए।
राष्ट्रपति ने इन्हें 1959 में पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया। ‘संस्कृति के चार अध्याय‘ के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया तथा उर्वशी के लिए इन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार‘ से भी सम्मानित किया गया।
ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से‘ पाठ का सारांश
प्रस्तुत पाठ रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ के द्वारा लिखा गया है, यह एक निबंध है। इस पाठ में लेखक ने ईर्ष्या के कारणों और ईर्ष्या से बचने के उपायों का उल्लेख किया गया है।
लेखक के घर के दाहिने ओर एक वकील साहब का घर है। जिसका परिवार काफी धनी है। उनके घर-परिवार, पत्नी-बच्चे, नौकर-चाकर सब कुछ हैं। वे काफी सम्पन्न हैं, फिर भी वे सुखी नहीं है, क्योंकि उनके घर के पास ही एक बीमा एजेण्ट का घर है, जो उस वकील से ज्यादा सम्पन्न है। वकील अपनी धन-सम्पत्त‍ि से खुश नहीं है, उसे चिन्ता है कि बीमा एजेण्ट के जैसा मोटर-कार और मोटी मासिक आय उसकी भी होती।
जिस मनुष्य के दिल में ईर्ष्या (जलन) जगह बना लेती हे, वह अपनी चीजों से सुख औ लाभ नहीं उठाता, बल्कि दूसरोंके पास उपस्थित वस्तुओं को देखकर दुःखी होता रहता है। वह हर बात में दूसरों से अपनी तुलना करता है। उसके पास जो है, उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद देने के बजाय, इस चिन्ता में रहता है कि इससे अधिक उसे प्राप्त क्यों नहीं हुआ।
दिन-रात अपने कमी को सोचते-सोचते अपनी उन्नति के लिए परीश्रम न करके दूसरों को हानि पहुँचाने का कार्य करने लगता है।
लेखक कहते हैं कि निन्दा करना भी ईर्ष्या का ही एक रूप है। जो व्यक्ति ईर्ष्यालु होता है, वह दूसरों की निन्दा करके स्वयं उसका सम्मानित स्थान प्राप्त कर लेना चाहता है।
लेखक कहते हैं कि दूसरों को गिराकर कोई व्यक्ति स्वयं ऊँचा नहीं उठ सकता है। दुनिया में कोई भी व्यक्ति निंदा से नहीं गिरता है। उसके पतन का कारण उसके सदगुणों में कमी होना है। अपने चरित्र को स्वच्छ और अच्छे गुणों का विकास करके ही कोई व्यक्ति उन्नति कर सकता है।
वे कहते हैं कि जिसके हृदय में ईर्ष्या उत्पन्न हो जाती है, सबसे पहले उसे ही जलाती है। ईर्ष्यालु लोग हमेशा इस चिंता में डूबे रहते हैं कि कब कोई सुनने वाला मिले कि वह दूसरों की निंदा कर सके।
चिंता को लोग चिता भी कहते हैं। जिसको किसी बात की चिंता लग जाती है, उसका तो जीवन ही नष्ट हो जाता है।
लेखक कहते हैं कि जिसके हृदय में ईर्ष्या का उदय हो जाता है उसे सामने के सुख और आनंद धूमिल दिखने लगते हैं। फूलों का खिलना, पक्षियों का चहचहाना सब उसके लिए बेकार लगने लगता है।
लेखक ने ईर्ष्या और चिंता से श्रेष्ठ मृत्यु को ही बताया है।
लेखक कहते हैं कि कोई भी आदमी अपने आस-पास वालों से या लगभग समान पद, कार्य अैर सम्पिŸा वालों से ही ईर्ष्या करता है, क्योंकि एक भिखारी एक करोड़पति से ईर्ष्या नहीं कर सकता। प्रतिद्वन्द्वी से ईर्ष्या करना लाभदायक भी हो जाता है, क्योंकि उससे आप उन्नति भी कर सकते हैं और यह आपके लिए लाभदायक सिद्ध होगा।
लेखक कहते हैं कि कुछ लोग इस बात से परेशान रहते हैं कि मैंने किसी का कुछ गलत नहीं किया फिर भी वह व्यक्ति निंदा क्यों कर रहा है।
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का कहना है कि तुम्हारी निंदा वहीं करेगा, जिसकी तुमने भलाई की है।
ईर्ष्यालु से बचने के लिए नीत्से कहते हैं कि बाजार की इन मक्खीयों को छोड़कर एकान्त में भागना चाहिए। अर्थात हमें ईर्ष्यालु व्यक्ति से दूर रहना चाहिए। क्योंकि महान और अमर मूल्यों की रचना भीड़ में रहकर नहीं की जा सकती है।
लेखक ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन को बताया है। ईर्ष्यालु स्वभाग के आदमी को व्यर्थ की बातों को सोचने की आदत छोड़ देना चाहिए और यह पता लगा चाहिए कि जिस कमी के कारण वह ईर्ष्यालु बना है, उसकी पूर्ति का अच्छा तरिका क्या है। जब व्यक्ति में अपनी कमियों को देखने की भावना जाग जाएगी, उस दिन से वह ईर्ष्या करना छोड़ देगा।

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4. भारतीय संस्कृति पाठ की व्याख्या | Bhartiya Sanskriti Class 10 Hindi

August 6, 2022 by Raja Shahin Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग उत्तर प्रदेश बोर्ड के हिन्‍दी के गद्य खण्‍ड के पाठ चार ‘भारतीय संस्कृति’ (Bhartiya Sanskriti Class 10 Hindi)  के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगे।

Bhartiya Sanskriti Class 10 Hindi

4. भारतीय संस्कृति
लेखक- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद

देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 1884 में बिहार के छपरा जिला के जीरादेई नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम महादेव राय था। इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. और कानून की पढ़ाई पूरी की। वह बहुत ही मेधावी छात्र थे। परीक्षा में हमेशा प्रथम आते थे। इन्होंने कलकत्ता और पटना में वकालत का कार्य किया। यह एक महान और सफल लेखक थे।
महात्मा गाँधी द्वारा शुरू किया गया चम्पारण आंदोलन में इन्होंने सक्रीय भूमिका निभाई। चलता हुआ वकालत को छोड़कर महात्मा गाँधी को आदर्श मानकर अपने आप को पूर्ण रूप से राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में लगा दिया।
इनकी इमान्दारी, निष्पक्षता और प्रतिभा को देखकर भारत के प्रथम राष्ट्रपति नियुक्त किया गया। 1952 से 1962 तक भारत के राष्ट्रपति रहे। 1962 ई. में इन्हें देश का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न‘ से सम्मानित किया गया। इनकी मृत्यु 1963 ई. में हो गई।
प्रस्तुत पाठ देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के द्वारा लिखा गया है, जिसमें उन्होंने भारतीय संस्कृति में अनेकता में एकता के गुण को दर्शाया हे।
राजेन्द्र प्रसाद कहते हैं कि कोई ऐसा व्यक्ति जो भारत की प्राकृतिक सभ्यता और संस्कृति से अपरिचित हो, तो उसे भारत भ्रमण करना चाहिए। उसे यहाँ बहुत सारी विभिन्नताएँ देखने को मिलेगी। उसे यह लगेगा कि यह एक देश नहीं, बल्कि कई देशों का एक समुह है। यहाँ एक तरफ बर्फ से ढ़की चोटियाँ हैं, तो दूसरी ओर गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र आदि नदियोंका विशाल मैदान, तो कहीं विन्ध्याचल, सतपुड़ा और अरावली की पर्वत श्रेणियों के बीच रंग-बिरंगे समतल भूभाग मिलेंगे।
एक तरफ पर्वतीय प्रदेशों की ठण्ड, तो दूसरी तरफ मैदानी भागों में धूप और लू से तपती भूमि, एक तरफ अधिक वर्षा वाला असम, तो दूसरी तरफ कम वर्षा वाला तपती जैसलमेर। यहाँ विभिन्न प्रकार के साग-सब्जियाँ, आज और फल-फूल पैदा किए जाते हैं। यहाँ सभी प्रकार के वृक्ष और जानवर पाए जाते हैं। यहाँ अलग-अलग प्रकार के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा वाले लोग रहते हैं। यहाँ अलग-अलग धर्मों के लोग रहते हैं। यहाँ के धर्म-सम्प्रदाय और भाषा को गिनना आसान काम नहीं है।
भारतीय संस्कृति में बाहर से देखने पर यहाँ भाषा, धर्म और जाति के आधार पर भिन्नता दिखाई देती है, लेकिन यहाँ अनेकता में एकता के दर्शन होते हैं।
भारत में दूसरों को समाहित कर लेने की अनोखी शक्ति होती है। यहाँ हजारों वर्षों से अलग-अलग मत को मानने वाले लोग एकता की भाव में रहते हैं।
लेखक की इच्छा है कि हमारे देश में एकता की भावना इसी तरह बनी रहे जैसे नदियों का उदगम स्थल अलग होने के बावजूद उसका जल पवित्र होता है।
हमारा देश एक प्रजातांत्रिक देश है जिसका अर्थ जनता का शासन होता है। यदि एक की उन्नति दूसरे के विकास में बाधक सिद्ध होती है, तो संघर्ष पैदा होता है। यह संघर्ष अहिंसा के रास्ते पर चलकर समाप्त किया जा सकता है। अहिंसा का दूसरा रूप त्याग है। हिंसा का दूसरा रूप भोग या स्वार्थ है। हमारे अंदर त्याग की भावन विद्यमान है, तभी तो हम यहाँ पर अपने-अपने धर्म को मानते हें, अपनी भाषा बोलते हैं। हमने किसी की सम्पिŸा पर जबरदस्ती कब्जा नहीं किया, बल्कि प्रेम और भाईचारे के साथ एक-दूसरे के धर्म और संस्कृति में शामिल हुए।
हमारे ऊपर बहुत सारे प्राकृतिक और मानवीय आपदाओं के आने के बावजूद भी हमारी संस्कृति स्थिर है। हमें विदेशीयों के द्वारा हराया गया, फिर भी हमने अपना धैर्य नहीं खोया। हमारे बुरे समय में भी हमारे देश में रवीन्द्रनाथ टैगोर तथा महात्मा गाँधी जैसे महापुरूषों ने देश के गौरव को समाप्त नहीं होने दिया।
वह कहते हैं कि हमारे देश को गौरवशाली बनाने के लिए हमें लाभ, भोग और लालच को छोड़कर समाज के कल्याण के लिए कार्य करना होगा। हमें व्यक्तिगत स्वार्थ को त्यागकर कर्तव्य और सेवा-इमान्दारी पर जोर देना होगा।
वह कहते हैं कि आज के इस वैज्ञानिक उन्नति में हर व्यक्ति या समूह एक-दूसरे को गिराने का प्रयास करेगा। हमें ऐसा प्रयास करना है, जो अहिंसा की भावना को जगाएँ और भोग की भावना को दबाकर रखें।
भारतीय संस्कृति को बनाए रखने के लिए प्रत्येक भाषाओं की रचना को दवनागरी लिपी में छपवाया जाए, जिससे उसका आनन्द सभी भारतीय ले सकें। ऐसी संस्थाओं की रचना की जाए जो इन भाषाओं का आदान-प्रदान अनुवाद के द्वारा करें।
लेखक कहते हैं कि भारत भूमि पर स्वर्ग होने की कल्पना तभी कर सकते हैं, जब हम सब अहिंसा, सत्य ओर सेवा के आदर्श को सारे संसार में फैलाऐंगे। Up Board Bhartiya Sanskriti Class 10 Hindi

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Kya Likhu up board class 10 Hindi | क्‍या लिखूँ कक्षा 10 हिंदी

August 5, 2022 by Raja Shahin Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग उत्तर प्रदेश बोर्ड के हिन्‍दी के गद्य खण्‍ड के पाठ तीन ‘क्‍या लिखूँ ?’ (Kya Likhu up board class 10 Hindi)  के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगे।

Kya Likhu up board class 10 Hindi

3. क्या लिखूँ ?

लेखक- श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी द्विवेदी युग के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इनका जन्म 1894 में छत्तीसगढ़ क्षेत्र के खैरागढ़ नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम उमराव बख्शी था। इनका पालन-पोषण एक साहित्यिक परिवार में हुआ था। इन्होंने ‘सरस्वति‘ पत्रिका का संपादन भी किया था। यह कुछ दिनों तक ‘छाया‘ मासिक पत्रिका का संपादन भी किया था। इनकी मृत्यु 1971 में हो गई।

3. क्या लिखूँ ? पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ ‘क्या लिखूँ ?‘ एक निबंध है, जिसे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के द्वारा लिखा गया है, इस पाठ में लेखक ने लिखने की कला और विशेष मानसिक स्थिति का वर्णन किया है।
अंग्रेजी के लेखक ए.जी.गार्डिनर के अनुसार, लेखन कार्य एक विशेष मानसिक स्थिति में ही किया जा सकता है। उस समय मन में कुछ ऐसी उमंगें और आवेग उत्पन्न होते हैं कि लेखक को लिखना ही पड़ता है। उस समय उसे विषय के बारे में सोचने की चिन्ता भी नहीं होती है, चाहे कोई भी विषय हो। वह अपनी सारी मनोभावों को उसी में भर देता है। अर्थात जब लेखक का मन करने लगता है, तो उसे ज्यादा दिमाग नहीं लगानी पड़ती है कुछ भी लिखने के लिए। उसका मन का भाव सबकुछ लिखवा देता है।
लेखक कहते हैं कि मेरे मन में न तो ऐसे भाव स्वयं उत्पन्न हुए और न ही उन्होंने कभी एसी स्थिति का अनुभव किया। उन्हें तो लिखने के लिए मेहनत के साथ चितंन और मनन करना पड़ता है।
लेखक को जब ‘समाज सुधार‘ और ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं‘ पर निबंध लिखने के लिए कहा गया, तो वह विद्वानों और निबंधशास्त्रों के निबंध ढुंढने लगे। लेखक के साथ कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि जब भाव स्वयं उमड़ पड़े हो।
लेखक कहते हैं कि बड़े निबंधों की तुलना में छोटे निबंध सुदंर और अधिक श्रेष्ठ होते हैं। लेखक के अनुसार आदर्श निबंध छोटा होता है।
विद्वानों का कहना है कि निबंध लिखने से पहले उसकी रूप-रेखा तैयार कर लेनी चाहिए। किन्तु लेखक जब निबंध लिखते हैं तो वह रूप-रेखा सोच नहीं पा रहे थे। ए.जी. गार्डिनर को और शेक्सपीयर को निबंध लिखकर उसका शीषर्क ढूँढने में कठिनाई होती थी।
लेखक कहते हैं कि निबंध में भाषा का प्रवाह होना चाहिए, वाक्य छोटे-छोटे और एक-दूसरे से संबंद्ध होना चाहिए।
लेखक कहते हैं कि अंग्रजी निबंधकार जो कुछ सुनते हैं, देखते हैं और अनुभव करते हैं उसे अपने निबंध में लिख देते हैं। उनकी निबंध में न ज्ञान की गरिमा होती है और न ही कल्पना का महत्व होता है। इसलिए लेखक इसे अच्छा नहीं मानते हैं।
लेखक कहते हैं कि ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं‘ यह इसलिए सही है, क्योंकि कहीं दूर ढोल बज रहा होता है, तो उनकी कर्कशता दूर तक सुनाई नहीं देती है। दूर बैठे व्यक्ति को वह स्वर मधुर सुनाई पड़ती है। दूसरी ओर एक व्यक्ति पास बैठा है, उसके कान का पर्दा फट रहा है। फिर वह विवाह उत्सव का आनंद लेता है तथा नववधु के प्रेम और उल्लास में खोया रहता है, जिससे पास के ध्वनि भी मधुर प्रतीत होने लगती है, लेकिन दूर बैठा हुआ व्यक्ति उस आवाज को सुनकर विवाह उत्सव की सुंदर कल्पना में खो जाता है। उसके साथ आनन्द का कोलाहल, उत्सव, खुशी और प्रेम के गीत मिले होते हैं, इसलिए दूर और पास बैठे व्यक्ति को ढोल का स्वर कठोर नहीं लगता है।
जो युवा होते हैं, वे हमेशा भविष्य की कल्पनाओं में खाए रहते हैं और क्रांति के समर्थक होते हैं। इसलिए भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं। दूसरी ओर वृद्ध वर्तमान से कभी खुश नहीं होते हैं, उन्हें अपना अतीत ही सुंदर लगता है। वे अपने अतीत को ही वर्तमान में लाना चाहते हैं।
इसलिए समय-समय पर सुधार आंदोलन चलाए जाते हैं और वर्तमान हमेशा सुधारों का काल बना रहता है।
आज के युवा साहित्यकार वर्तमान में भूत और भविष्य की गौरव का वर्णन करते हैं, परन्तु कुछ समय बाद जब वह वृद्ध हो जाते हैं, तो उनकी समझ कमजोर और दर्बल हो जाती है। वह वृद्ध होकर अतीत के गौरव का सपना देखने लगते हैं। फिर युवाओं का नया दल सुनहरे भविष्य का सपना देखने लगता है, क्योंकि कहा गया है कि ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं।‘

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2. ममता कहानी का व्‍याख्‍या और सारांश | Mamta Kahani Jaishankar Prasad

August 4, 2022 by Raja Shahin Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग उत्तर प्रदेश बोर्ड के हिन्‍दी के गद्य खण्‍ड के पाठ दो ममता कहानी (Class 10 Hindi Chapter 2 Mamta Kahani Jaishankar Prasad)  के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगे।

Mamta Kahani Jaishankar Prasad

2. ममता (कहानी)

जयशंकर प्रसाद का जन्म 1889 ई. में काशी के एक जाने-माने एक वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम देवी प्रसाद था। इनके परिवार का मुख्य व्यापार तम्बाकू का था। जब लेखक युवावस्था में आए, तो इनके पिता का स्वर्गावास हो गया और उनके चार वर्ष के बाद ही उनकी माता का भी स्वर्गावास हो गया। इनका पालन-पोषण इनके बड़े भाई ने किया।
प्रसाद जी ने अंग्रजी, फारसी, उर्दू, हिन्दी और संस्कृत का शिक्षा ग्रहण किया। वेद, पुराण, साहित्य, दर्शन का ज्ञान अपने स्वाध्याय से किया।
इनके बड़े भाई के मृत्यु के बाद इनके परिवार का व्यवसाय ठप्प हो गया तथा परिवार ऋणग्रस्त हो गया। ऋण चुकाने के लिए इन्होंने अपनी पूरी पैतृक संपत्ति बेच दी।
इनका जीवन संघर्षों में बीता हुआ है, लेकिन वे कभी हार नहीं माने। यह क्षयरोग के शिकार हो गया जिसके कारण इनका शरीर बहुत कमजोर हो गया तथा 1937 में इनकी मृत्यु हो गई।

ममता कहानी का सारांश

प्रस्तुत कहानी ‘ममता’ जयशंकर प्रसाद के द्वारा लिखी गयी है। इस कहानी का मुख्य पात्र ममता है, जो रोहतास दुर्गपति (किले का मालिक) के मंत्री की इकलौती पुत्री है, जोकि एक विधवा है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने हिन्दू समाज में विधवा स्त्रियों की असहाय और दयनीय स्थिति का वर्णन किया है।
ममता रोहतास-दुर्ग के मन्त्री चूड़ामणि की इकलौती पुत्री थी, जो बाल्यावस्था में ही विधवा हो गई थी। वह अपने दुर्ग के मुख्यद्वारा के पास कमरे में बैठी हुई सोन नदी के उफान की प्रवाह को देख रही थी। वह हर पल व्याकुल रहती थी, जैसे उसके दिलों में विचारों की आँधी चल रही हो तथा उसकी आँखों से निरंतर आँसू ही निकलते थे। पिता के मन्त्री होने के कारण ममता को धन-दौलत की कोई कमी नहीं थी, किन्तु बाल-विधवा होने के कारण उसको मानसिक सुख की प्राप्ति नहीं हुई। उसके मन में तरह-तरह के विचार उमड़ रहे थे। इसी बीच चूड़ामणि उसके कमरे में प्रवेश किया, किन्तु ममता अपने पिता के आगमन को न जान सकी। उसके लिए पिता चिन्तित होते हुए वापस लौट गए।
एक पहर के बाद चूड़ामणि ने थालों में सोना लिए ममता के पास आए। उनके पिछे दस सैनिक थे। ममता ने उनलोगों के आगमन पर सवाल पूछा कि इतना सोना कहाँ से आया, तो पिता ने जवाब दिया कि यह तुम्हारे लिए उपहार है। उनके पिता ने बताया कि अब सामन्त वंश का अंत होने वाला है। शेरशाह किसी भी दिन दुर्ग पर अधिकार कर सकता है। जब हम मंत्री नहीं रहेंगे, तो उस दिन यह काम आएगा। ममता ने रिश्वर में लिए गए सोने को परमात्मा के इच्छा के विरूद्ध दुस्साहस माना और पिता से कहा कि इसे लौटा दीजिए।
हम ब्राह्मण हैं, हम सोने लेकर क्या करेंगे? क्या उस बुरे समय में कोई हम ब्राह्मणों को दो मुट्ठी अनाज नहीं देगा ? बेटी के इस व्यवहार से दुःखी होकर चूड़ामणि चले गए।
दूसरे दिन रोहतास-दुर्ग के गेट पर डोलियों की कतारें आ रहीं थी, तब ब्राह्मण चूड़ामणि से रहा न गया और उसने डोलियों के आवरण हटाने के लिए कहा। इतने में पठानों ने इसे महिला का अपमान समझा और तलवारें निकालकर चूड़ामणि को मान दिया।
रोहतास के राजा-रानी और खजाना सभी पर शेरशाह शुरी का कब्जा हो गया। किन्तु ममता उनकी हाथ न लगी। पठान सैनिकों ने पूरा उनका दूर्ग देख लिया लेकिन ममता वहाँ से गायब हो गयी थी।
इस घटना के काफी समय बाद बनारस के उŸार में धर्मचक्र-विहार में बने मौर्य और गुप्त सम्राटों के कीर्ति स्तम्भ, जो अब लगभग खण्डहर बन चूके थे, वहाँ वृक्षों की छाया में बैटी ममता पाठ कर रही थी। अचानक उनका पाठ रूक गया, उनके पास एक हताश-सा एक व्यक्ति आया और ‘माता मुझे आश्रय दो‘ कहकर शरण माँ्रगने लगा। उसने बताया वह शेरशाह शुरी के द्वारा हराया गया है। ममता को उसके अंदर क्रुरता और रक्त की प्यास दिखाई दे रही थी। ममता ने कहा कि मेरी कुटि में जगह नहीं है। इतने में वह बेहोश होकर वहीं गिर गया। ममता ने पानी देकर उसका जान बचाई। ममता के द्वारा अपने पिता का पठानों द्वारा किया गया हत्या याद था। फिर भी वह अतिथि की सेवा कŸार्व्य समझकर अपने कुटिया में विश्राम करने के लिए कही। मुगल ने ममता का प्यारा चेहरा देखकर मन-ही-मन प्रणाम किया। ममता पास के खण्डहर में चली गयी।
अगले दिन सुबह में बहुत-से सैनिकों ने ममता को इनाम देने के लिए खोजें। लेकिन ममता जब नहीं मिली, तो शाम को मुगल अपने अधीन सैनिकों से कहा रहा था कि मैं उस स्त्री को कुछ दे न सका, यहाँ उसकी झोपड़ी की जगह उसके लिए महल बनवा देना। यह कहकर वह वहाँ से चला गया। यह सब ममता खंडहर से देख रही थी।
चौसा के मैदान में पठान और मुगलों के बीच हुए इस युद्ध का बहुत समय बीत गया। ममता मरने की अवस्था में आ गई थी। उसके पास दो-तीन स्त्रीयाँ बैठी हुई थी, क्योंकि उसने भी जीवन भर दूसरों की सेवा की थी।
उसी समय एक अश्वारोही आया और नक्शा देखकर वह स्थान ढूँढने लगा कि किससे पूछूँ कि शहंशाह हुमायँ किस छप्पर के नीचे विश्राम किया था। बात सैंतालिस साल पूरानी थी। तब ममता ने बताया कि मुझे पता नहीं कि वह कौन था , किन्तु एक मुगल ने यहाँ रात बिताई थी। मैं जीवन भर अपनी झोपड़ी टूटने से डरती रहीं। अब तुम यहाँ जो चाहो बनवाओ मैं तो हमेशा के लिए विश्राम करने जा रही हुँ। यह कहते ही ममता हमेशा के लिए सो गई।
उसके बाद अकबर के द्वारा वहाँ पर एक सुन्दर अष्टकोण मन्दिर बनावाया गया और उस पर लिखवाया गया ‘सातों देश के राजा हुमायूँ ने एक दिन यहाँ विश्राम किया था‘‘
उनके पुत्र अकबर ने उनके याद में एक गगनचुम्बी इमारत बनावाया, लेकिन दुःख की बात है कि उसमें ममता का कहीं नाम न था।

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Jaiv Prakram Class 10th in Hindi | जैव प्रक्रम कक्षा 10 विज्ञान

August 4, 2022 by Raja Shahin Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 10 विज्ञान के पाठ  जैव प्रक्रम (Jaiv Prakram Class 10th in Hindi) के प्रत्‍येक टॉपिक के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगे।

Jaiv Prakram Class 10th in Hindi

1. जैव प्रक्रम : पोषण

जैव प्रक्रम– वे सारी क्रियाएँ जिनके द्वारा जीवों का अनुरक्षण होता है, जैव प्रक्रम कहलाती हैं।
पोषण- वह विधि जिससे जीव पोषक तŸवों को ग्रहण कर उनका उपयोग करते हैं, पोषण कहलाता है।
पोषण की विधियाँ
जीवों में पोषण मुख्यतः दो विधियों द्वारा होता हैं।
1. स्वपोषण
2. परपोषण
स्वपोषण- पोषण की वह विधी जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं निर्माण करते हैं। स्वपोषण कहलाता है।
स्वपोषी- पोषण की वह प्रक्रिया जिसमें जीव अपने भोजन के लिए अन्य जीवों पर निर्भर न रहकर अपना भोजन स्वयं संश्लेषित (निर्माण) करते हैं, स्वपोषी कहलाते हैं। अर्थात जिस जीव में स्वपोषण पाया जाता है, उसे स्वपोषी कहते हैं। जैसे- हरे पौधे।
परपोषण- परपोषण वह प्रक्रिया है जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित न कर किसी-न-किसी रूप में अन्य स्त्रोतों से प्राप्त करते हैं।
परपोषी- वे जीव जो अपने भोजन के लिए अन्य स्त्रोतों पर निर्भर रहते हैं, उसे परपोषी कहते हैं। जैसे- गाय, अमीबा, शेर आदि।
परपोषण के प्रकार-
परपोषण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं-
1. मृतजीवी पोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपने भोजन के लिए मृत जंतुओं और पौधों के शरीर से, अपने शरीर की सतह से घुलित कार्बनिक पदार्थों के रूप में अवशोषित करते हैं। मृतजीवी पोषण कहलाते हैं। जैसे- कवक बैक्टीरिया तथा कुछ प्रोटोजोआ।
2.परजीवी पोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपने पोषण के लिए दूसरे प्राणी के संपर्क में, स्थायी या अस्थायी रूप से रहकर, उससे अपना भोजन प्राप्त करते हैं। परजीवी पोषण कहलाते हैं। जैसे-कवक, जीवाणु, गोलकृमि, हुकवर्म, मलेरिया परजीवी आदि।
3. प्राणिसम पोषण- वैसा पोषण जिसमें प्राणी अपना भोजन ठोस या तरल के रूप में जंतुओं के भोजन ग्रहण करने की विधि द्वारा ग्रहण करते हैं, प्राणी समपोषण कहलाते हैं। जैसे- अमीबा, मेढ़क, मनुष्य आदि।
प्रकाशसंश्लेषण क्या है ?
सूर्य की ऊर्जा की सहायता से प्रकाशसंश्लेषण में सरल अकार्बनिक अणु- कार्बन डाइऑक्साइड और जल का पादप-कोशिकाओं में स्थिरीकरण कार्बनिक अणु ग्लूकोज (कार्बोहाइड्रेट) में होता है।
प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक पदार्थ-
प्रकाश संश्लेषण के लिए चार पदार्थों की आवश्यकता होती हैं-
1. पर्णहरित या क्लोरोफिल, 2. कार्बनडाइऑक्साइड, 3. जल और 4. सूर्य प्रकाश
उपापचय- सजीव के शरीर में होनेवाली सभी प्रकार की रासायनिक क्रियाएँ उपापचय कहलाती है। जैसे- अमीनो अम्ल से प्रोटीन का निर्माण होना, ग्लूकोज से ग्लाइकोजेन का निर्माण होना आदि।
अमीबा में पोषण
अमीबा एक सरल प्राणीसमपोषी जीव है। यह मृदुजलीय, एककोशीय तथा अनिश्चित आकार का प्राणी है। इसका आकार कूटपादों के बनने और बिगड़ने के कारण बदलता रहता है।
अमीबा का भोजन शैवाल के छोटे-छोटे टुकड़े, बैक्टीरिया, डायटम, अन्य छोटे एककोशिकीय जीव तथा मृत कार्बनिक पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़े इत्यादि हैं।
अमीबा में पोषण अंतर्ग्रहण, पाचन तथा बहिष्करण प्रक्रियाओं द्वारा पूर्ण होता है।
अमीबा में भोजन के अंतर्ग्रहण के लिए मुख जैसा कोई निश्चित स्थान नहीं होता है, बल्कि यह शरीर की सतह के किसी भी स्थान से हो सकता है।
अमीबा जब भोजन के बिल्कुल समीप होता है तब अमीबा भोजन के चारों ओर कूटपादों का निर्माण करता है। कूटपाद तेजी से बढ़ते हैं और भोजन को पूरी तरह घेर लेते हैं। धीरे-धीरे कूटपादों के सिरे तथा फिर पार्श्व (पार्श्व) आपस में जुड़ जाते हैं। इस तरह एक भोजन-रसधानी का निर्माण हो जाता है जिसमें भोजन के साथ जल भी होता है।
भोजन का पाचन भोजन रसधानी में ही एंजाइमों के द्वारा होता है। अपचे भोजन निकलने के लिए शरीर के किसी भाग में अस्थायी छिद्र का निर्माण होता है जिससे अपचा भोजन बाहर निकल जाता है।
मनुष्य का पाचनतंत्र
वैसे अंग जो भोजन पचाने में सहायता करते हैं। उन्हें सामुहिक रूप से पाचन तंत्र कहते हैं।
आहारनाल और संबंधित पाचक ग्रंथियाँ और पाचन क्रिया मिलकर पाचनतंत्र का निर्माण करते हैं।
मनुष्य तथा सभी उच्च श्रेणी के जंतुओं में भोजन के पाचन के लिए विशेष अंग होते हैं जो आहारनाल कहलाते हैं।
आहारनाल- मनुष्य का आहारनाल एक कुंडलित रचना है जिसकी लंबाई करीब 8 से 10 मीटर तक की होती है। यह मुखगुहा से शुरू होकर मलद्वार तक फैली होती है।
मुखगुहा- मुखगुहा आहारनाल का पहला भाग है। पाचन मुखगुहा से प्रारंभ होता है। मुखगुहा एक खाली जगह होता है जिसमें एक जीभ, तीन जोड़ा लार ग्रंथि तथा 32 दांत पाये जाते हैं।
मुखगुहा को बंद करने के लिए दो मांसल होंठ होते हैं।
जीभ के ऊपर कई छोटे-छोटे अंकुर होते हैं, जिसे स्वाद कलियाँ कहते हैं। यह भोजन के विभिन्न स्वादों जैसे मीठा, खारा, खट्टा, कड़वा आदि का अनुभव कराता है।
मनुष्य के मुखगुहा में तीन जोड़ी लार ग्रंथियाँ पाई जाती है, जिससे प्रतिदिन डेढ़ लीटर लार का स्त्राव होता है।
लार में मुख्य रूप से लाइसोजाइम, एमीलेस या एमाइलेज तथा टायलीन नामक एंजाइम पाए जाते हैं।
मुखगुहा में लार का कार्य-
यह मुखगुहा को साफ रखती है।
भोजन को चिपचिपा और लसलसा बना देता है।
यह भोजन में उपस्थित किटाणुओं को मार देता है।
यह स्टार्च को शर्करा (कार्बोहाइड्रट) में बदल देता है।
दाँत
दाँत में सर्वाधिक मात्रा में कैल्शियम पाया जाता है।
मानव दाँत के दो परत होता है। बाहरी परत इनामेल कहलाता है जबकि आंतरिक पर डेंटाइन कहलाता है।
मानव शरीर का सबसे कठोर भाग दाँत का इनामेल होता है जो कैल्शियम फॉस्फेट का बना होता है। इनामेल दाँतों की रक्षा करता है।
मानव दाँत चार प्रकार के होते हैं-
1. साइजर (8), 2. केनाइन (4), 3. प्रीमोलर (8) और 4. मोलर (12)
ग्रसनी- मुखगुहा का पिछला भाग ग्रसनी कहलाता है। इसमें दो छिद्र होते हैं।
1. निगलद्वार, जो आहारनाल के अगले भाग ग्रासनली में खुलता है। तथा
2. कंठद्वार, जो श्वासनली में खुलता है। कंठद्वार के आगे एक पट्टी जैसी रचना होती है, जो एपिग्लौटिस कहलाता है। मनुष्य जब भोजन करता है तब यह पट्टी कंठद्वार को ढँक देती है, जिससे भोजन श्वासनली में नहीं जा पाता है।
ग्रासनली- यह मुखगुहा को अमाशय से जोड़ने का कार्य करता है। यह नली के समान होता है। मुखगुहा से लार से सना हुआ भोजन निगलद्वार के द्वारा ग्रासनली में पहुँचता है। भाजन के पहुँचते ही ग्रासनली की दिवार में तरंग की तरह संकुचन या सिकुड़न और शिथिलन या फैलाव शुरू हो जाता है। जिसे क्रमाकुंचन कहते हैं। ग्रासनली में पाचन की क्रिया नहीं होती है। ग्रासनली से भोजन अमाशय में पहुँचता है।
आमाशय- यह एक चौड़ी थैली जैसी रचना है जो उदर-गुहा के बाईं ओर से शुरू होकर अनुप्रस्थ दिशा में फैली होती है।
आमाशय में प्रोटीन के अतिरिक्त भोजन के वसा का पाचन करता है।
अमाश्य के तीन भाग होते हैं- कार्डिएक, फुंडिक और पाइलेरिक
अमाश्य से हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का स्त्राव होता है, जो कीटाणुओं को मार देता है और भोजन को अम्लीय बना देता है।
अमाश्य में जठर ग्रंथि पाई जाती है, जिससे जठर रस निकलता है। जठर रस में रेनिन और पेप्सिन पाया जाता है। रेनिन दूध को दही में बदल देता है तथा पेप्सीन प्रोटीन का पाचन करता है। प्रोटीन को पेप्टोन में बदल देता है।
भोजन अब गाढ़ लेई की तरह हो गया है, जिसे काइम कहते है। काइम अमाशय से छोटी आँत में पहुँचता है।
छोटी आँत- छोटी आँत आहारनाल का सबसे लंबा भाग है। यह बेलनाकार रचना है। छोटी आँत में ही पाचन की क्रिया पूर्ण होती है। मनुष्य में इसकी लंबाई लगभग 6 मीटर तथा चौड़ाई 2.5 सेंटीमीटर होती है।
शाकाहारी जन्तुओं में छोटी आँत की लंबाई अधिक और मांसाहारी जन्तुओं में छोटी आँत की लंबाई कम होती है।
छोटी आँत के तीन भाग होते हैं- ग्रहणी, जेजुनम तथा इलियम
ग्रहणी छोटी आँत का पहला भाग होता है। जेजुनम छोटी आँत का मध्य भाग होता है। छोटी आँत का अधिकांश भाग इलियम होता है।
पचे हुए भोजन का अवशोषण छोटी आँत में ही होता है।
छोटी आँत में भोजन का पाचन पित्त, अग्न्याशयी रस तथा आंत्र-रस के स्त्राव से होता है।
यकृत- यह शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है जो उदर के ऊपरी दाहिने भाग में अवस्थित है। यकृत कोशिकाओं से पिŸा का स्त्राव होता है। स्त्रावित पित्त पित्ताशय नामक एक छोटी थैली में आकर जमा रहता है।
पित्ताशय- इसमें यकृत द्वारा बनाया गया पित्त आकर जमा रहता है। इसमें पित्त का निर्माण नहीं होता है। पित्त भोजन को क्षारिय बना देता है क्योंकि पित्त क्षारिय होता है। इसका रंग गाढ़ और हरा होता है। यह एंजाइम न होते हुए भी भोजन के पाचन में सहायक है।
पित्त के दो मुख्य कार्य है-
1. पित्त अमाशय से ग्रहणी में आए अम्लीय काइम की अम्लीयता को नष्ट कर उसे क्षारीय बना देता है ताकि अग्न्याशयी रस के एंजाइम उस पर क्रिया कर सके।
2. पित्त के लवणों की सहायता से भोजन के वसा के विखंडन तथा पायसीकरण होता है ताकि वसा को तोड़नेवाले एंजाइम उस पर आसानी से क्रिया कर सके।
अग्न्याशय- आमाशय के ठीक नीचे तथा ग्रहणी को घेरे पीले रंग की एक गं्रथि होती है जो अग्न्याशय कहलाती है।
अग्नाशय से तीन प्रकार के इंजाइम निकलते हैं। इन तीनों को सामूहिक रूप से पूर्ण पाचक रस कहते हैं क्योंकि यह भोजन के सभी अवयव को पचा सकते हैं।
इससे ट्रिप्सीन, एमाइलेज और लाइपेज नामक इंजाइम स्त्रावित होते हैं।
ट्रिप्सीन- यह प्रोटीन को पचाकर पेप्टाइड में बदल देता है।
एमाइलेज- यह स्टार्च को शर्करा में तोड़ देता है।
लाइपेज- यह पित्त द्वारा पायसीकृत वसा को तोड़कर ग्लिसरोल तथा वसीय अम्ल में बदल देता है।
पचे हुए भोजन का अवशोषण इलियम के विलाई के द्वारा होता है। भोजन अवशोषण के बाद रक्त में मिल जाते हैं। रक्त शरीर के विभिन्न भागों तक वितरित कर देते हैं।
छोटी आँत में काइम (भोजन) और भी तरह हो जाता है, जिसे चाइल कहा जाता है।
बड़ी आँत- छोटी आँत आहारनाल के अगले भाग बड़ी आँत में खुलती है। बड़ी आँत दो भागों में बँटा होता है। ये भाग कोलन तथा मलाशय या रेक्टम कहलाते हैं।
छोटी आँत और बड़ी आँत के जोड़ पर ऐपेंडिक्स होती है। मनुष्य के आहारनाल में ऐपेंडिक्स का कोई कार्य नहीं है।
जल का अवशोषण बड़ी आँत में होता है।
अंत मे अपचा भोजन मल के रूप में अस्थायी तौर पर रेक्टम में जमा होता रहता है जो समय समय पर मलद्वार के रास्ते शरीर से बाहर निकलते रहता है।

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Class 10 Hindi Chapter 1 Mitrata Vyakhya | मित्रता कक्षा 10 हिन्‍दी गद्य खण्‍ड व्‍याख्‍या

August 2, 2022 by Raja Shahin Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग उत्तर प्रदेश बोर्ड के हिन्‍दी के गद्य खण्‍ड के पाठ एक मित्रता (Class 10 Hindi Chapter 1 Mitrata Vyakhya)  के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगे।

Class 10 Hindi Chapter 1 Mitrata Vyakhya

1. मित्रता

लेखक परिचय

लेखक- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
इनका जन्म 1884 में बस्ती जिला के अगोना नामक गाँव में हुआ था। पिता का नाम चन्द्रबली शुक्ल था। एफ.ए. (इण्टरमीडिएट) के बाद इन्होंने सरकारी नौकरी की, बाद में सरकारी नौकरी छोड़कर मिर्जापुर के मिशन स्कूल में चित्रकला के अध्यापक के रूप में कार्य किया।
इन्होंने मिर्जापुर के पण्डित केदारनाथ पाठक एवं प्रेमघन के संपर्क में आकर हिन्दी, उर्दू, बांग्ला, संस्कृत, अंग्रेजी आदि कई भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया। ‘आनंद कादम्बिनी‘ नामक पत्रिका में इनकी रचनाएँ प्रकाशित भी होने लगी। इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेशर (प्राध्यापक) का कार्य किया। बाद में वे हिन्दी विभाग के अध्यक्ष भी हो गए।
यह एक निबन्धकार, अनुवाद, आलोचक और सम्पादक थे। इन्हें हिन्दी साहित्य के जगत में आलोचना का सम्राट कहा जाता है। इनकी मृत्यु 1941 में हो गयी।

Up Board Class 10 Hindi Chapter 1 Mitrata Vyakhya

मित्रता पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ ‘मित्रता‘ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के द्वारा लिखा गया है। इस पाठ में लेखक ने सच्चे मित्र, मित्रता के उद्देश्य और सच्चे मित्र के कर्त्तव्‍य को बताया गया है। साथ ही लेखक के द्वारा बुरी संगति से बचने की भी सलाह दी गई है।
लेखक कहते हैं कि जब हम युवावस्था में घर की चाहरदीवारी से बाहर निकलते हैं तो हमारी सबसे बड़ी समस्या एक सच्चा मित्र बनाने की होती है। वह कहते हैं कि जब हम दुनियादारी में प्रवेश करते हैं तो हमारा मस्तिष्क और मन निर्मल होता है। मित्रता का प्रभाव हमारे चरित्र पर पड़ता है। मित्रता के प्रभाव में आकर कोई राक्षस तो काई देवता बन सकता है। चरित्र का विकास मित्रता के प्रभाव के कारण होती है।
ऐसे लोगों की मित्रता अच्छी नहीं होती है, जो अधिक दृढ़ संकल्प वाले होते हैं, क्योंकि हम उनकी बात का विरोध नहीं कर सकते और हमें बिना सोचे-समझे उनकी बात माननी पड़ती है।
लेखक कहते हैं कि ऐसे लोगों की भी मित्रता अच्छी नहीं होती है, जो हमारी बात को ऊपर रखकर हमें सम्मान देते हैं, क्योंकि वो हमारा विरोध नहीं करते, जिससे धीरे-धीरे हमारी सोचने-समझने की शक्ति कमजोर हो जाती है और बुद्धि छोटी हो जाती है।
एक विश्वासपात्र और अच्छा मित्र जीवन में जड़ी-बुटी के समान होता है। जो हमें गलत रास्ते पर जाने से रोकता है। जो गलतियों से बचाता है, निराश होने पर आशा का संचार करता है।
लेखक कहते हैं कि एक सच्चे मित्र का कर्त्तव्‍य है कि वह हमारा सही मार्गदर्शन करे। वह हमारा प्रेमपात्र होना चाहिए, जिसमें एक अच्छे भाई का गुण हो। जो एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना मानें, एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना मानें। जो शुद्ध हृदय वाला हो। जिनसे हमें धोखा खाने का डर न हो।
वह कहते हैं कि हमें उनलोगों से मित्रता भूलकर भी नहीं रखनी चाहिए, जिनमें अच्छाइयाँ कम और बुराइयाँ अधिक हों। जिनका मन नीच हो। जो दूसरों की बुराईयों करते हों तथा नशा जैसी आदतों से घिरे हों।
लेखक कहते हैं कि अलग-अलग स्वभाव और रूचि के लोगों में भी मित्रता और भाईचारा संभव है। जैसे श्रीराम वीर, गम्भीर और शांत स्वभाव के थे, जबकि लक्ष्मण उग्र और अक्खड़ स्वभाव के थे फिर भी दोनों भाईयों में घनिष्ठ प्रेम था। इसी प्रकार उदार और स्वभिमानी कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभाव बिल्कुल अलग होने पर भी उनकी मित्रता विश्व प्रसिद्ध है।
लेखक कहते हैं कि जो लोग न कोई बुद्धिमानी की बात करते हैं, न सहानुभूति दिखाते हैं, न हमें कर्त्तव्‍य का ध्यान दिलाते हैं, न हमारे सुख-दुःख में शामिल होते हैं, ऐसे लोगों से हमें दूर रहना चाहिए।
लेखक कहते हैं कि कुसंगति अर्थात गलत संगत से व्यक्ति की बुद्धि का नाश हो जाता है। थोड़े समय के लिए कुसंगति भी व्यक्ति को नाश की ओर ले जाता है। अच्छी सगंति से व्यक्ति दिन-प्रतिदिन उन्नति करता है। उसका चरित्र उज्जवल और बिना कलंक वाला होता है।
अंत में, लेखक हमें सलाह देते हैं कि हमें बुरे लोगों की संगति से बचना चाहिए और उत्तम, अच्छा चरित्र वाला, सच्चा, ईमान्दार, विवेकशील लोगों के साथ रहना चाहिए और ऐसे लोगों से ही मित्रता करनी चाहिए।

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